कर्म विज्ञान का बोध: भाग -3/understanding of karma science Part -3

कर्म विज्ञान का बोध: ===(3)=–

नारायण। ध्यान दिजीए, शरीर निर्वाह के लिए कर्म करना आवश्यक है, नहीं तो शरीर किसी काम का नहीं रहेगा।

किसी ने “पेन’ का इस्तेमाल किया, मगर काम होने के बाद पेन का ढक्कन नहीं लगाया तो उसके द्वारा ढक्कन न लगाने का कर्म हुआ । जिस तरह पेन का ढक्कन लगाना आवश्यक है, वरना उसके अन्दर की स्याही सूख जाएगी, उसी तरह व्यापाम करना शरीर के लिए आवश्यक है,। आप शरीर का इस्तेमाल कर रहे हैं तो उसके स्वास्थ्य का खयाल रखना आवश्यक है, वरना कुछ समय बाद शरीर बीमार हो जाएगा। बीमारी कुदरत के द्वारा दिया गया कर्म संकेत है कि अब स्वास्थ्य पाने के लिए अच्छी आदतें डालने का कर्म शुरू करो।

यह कुदरत का कानून है कि आग में हाथ डाला तो हाथ जलेगा। फिर आपने अनजाने में डाला हो या जान बूझकर। यदि कुदरत का कानून आपको मालूम न हो तो उसे जानने का कर्म करें।

कोई कर्म आनन्द का कारण बनता है और कोई असंतुष्टि का कारण बनता है। जो कर्म स्वार्थ भाव से किया जाता है, वह आपको कभी भी आत्मसंतुष्टि नहीं देता। इसलिए न करने के कर्म को अकर्म न समझा जाए। अकर्म की अवस्था प्रज्ञा प्राप्त करके आती है

कहीं हम किसी तर्क में फसकर अपना सही कर्म बन्द न कर दें। आज जिस वजह से हमें जो फल मिल रहा है, वे कर्म बन्द हो गए तो फिर जो मिल रहा था, वह भी मिलना बन्द हो जाएगा और हमें पता ही नहीं चलेगा। इन्सान को पता नहीं होता कि किस कर्म से कौन सा फल आया है या आने जा रहा है, इसलिए वह ऐसे कई कर्म छोड़ देता है, जिनसे बहुत बढ़िया फल आया, आनन्द आया। अगर उसे कोई दिखा पाता कि तुमने ये कर्म किए तो यह फल तुम्हारे लिए आए हैं। आपको कोई दिखा नहीं पाता कि जो कर्म आपके द्वारा किए गए, इसकी वजह से आज यह सुखद फल मिल रहा है। अगर कोई दिखाता तो आप फिर वह कर्म बन्द नहीं करते, जिससे आज आपके जीवन में आनन्द आया है।

(* इन्सान बाहर से कुछ करते हुए दिखाई देता है तो लोग उसे कर्म कहते हैं, लेकिन बाहर से ” कुछ न करना” भी कर्म ही है।।

भगवान् श्री वासुदेव कृष्ण कहते हैं:

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥

अर्थात् जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त कर्मेन्द्रियों । सम्पूर्ण इन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता है, वह “मिथ्याचारी” । मिथ्या आचरण करने वाला। कहा जाता है।नारायण। विचार भी एक कर्म है और अपने समयानुसार वह भी फलित होता है। यदि आप हमेशा पह सोचते हैं कि लोग बुरे हैं * तो यह विचार भी आपके द्वारा किया गया कर्म है। लोगों का आपसे बुरा व्यवहार करना, यह आपके विचार का ही फल है।

आज तक लोगों की धारणा है कि कर्मेन्द्रियों द्वारा जो कार्य किए जाते हैं, वे ही कर्म होते हैं। जैसे हाथ, पाँव, आँख, जुबान, नाक और त्वचा द्वारा किए गए काम, कर्म है। सिर्फ कर्मेन्द्रियों द्वारा किए गए कर्म ही कर्म नहीं होते, बल्कि आप जो विचार करते है, वे भी कर्म बनकर फल लाते हैं।

“जैसे आप सोचते हैं, वैसे सबूत आपको मिलते हैं।” विचारों द्वारा आप जो कर्म करते हैं, उनका फल आपको मिलता है। सही समझ न होने के कारण केवल शरीर द्वारा की गई क्रियाओं को ही कर्म मानते हैं। जैसे कोई इन्सान बाहर से गाली नहीं देता, थप्पड़ नहीं मारता, परन्तु मन में गाली देता है, उसके अन्दर किसी के प्रति नफरत होती है, ऐसा इन्सान भ्रम में रहता है कि वह सही कर्म कर रहा है।

आपके विचार, बीज का कार्य करते हैं। देखें कि दिनभर आप कौन से विचार करते रहते हैं? जो विचारबीज आप बोएँगे, उन्हीं के फल आएँगे। शायद आपको यकीन न हो, परन्तु आज आपकी जो दशा है, उसके जिम्मेदार आपके विचार है। इस बात को समझते हुए जाँचे कि आपने अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में कितनी बार गलत, नकारात्मक विचार किए हैं? कहीं आप गलत बीज तो नहीं डाल रहे हैं? आपको उसके लिए बहुत ही चौकन्ना रहना होगा, क्योंकि मानसिक कमों का भी फल आएगा। आपको अपने विचारों के परिणाम शापद तुरन्त दिखाई न दें, क्योंकि मस्तिष्क में बिना रुके विचारों की श्रृंखला चलती रहती हैं। विचारों का भाव के साथ गहरा तालमेल है। इसलिए विचारों द्वारा किए कर्मों का परिणाम आपके सामने आता है। इसे निम्न उदाहरण से समझने का प्रयन किजीएगा:

किसी इन्सान ने जमीन में एक बीज डाला तो उसका पौधा बाहर दिखाई देने के लिए 365 तीन सौ पैसठ दिन यानी एक साल लगेगा। पदि आप रोज एक बीज जमीन में सालभर डालते रहेंगे, तब एक साल के बाद पहले बीज का पौधा दूसरे साल के पहले दिन पर बाहर आएगा। उसके बाद हर रोज एक पौधा बाहर आएगा क्योंकि आपने पहले ही निरन्तरता से हर रोज एक-एक करके 365 बीज बोए हैं। इसका अर्थ यह है कि आपने पहले से ही जो बीज बोए हैं, उनका असर दूसरे साल में दिखाई दिया इसी तरह आप जो बीज डालते (कर्म करते हैं, उसका असर आपको तुरन्त दिखाई नहीं देता। आपका कोई भी विचार, वाणी और क्रिया बेकार नहीं जाती, बल्कि उसका फल आपको मिलता ही है।

हमारे द्वारा कहे गए शब्द, बुद्धि से निकली हुई कल्पनाएँ और चित्र हकीकत में परिवर्तित होते हैं, वे कभी बेकार नहीं जाते। अपने आपको थोड़ा समय दें और अपनी तरफ से डाले गए बीजों का फल आने तक अच्छे विचार, वाणी और क्रियाएँ होश के साथ करते रहें ऐसा करने से आपको हमेशा खुशी और सफलता मिलती रहेगी।

(विचारों द्वारा भी कर्म होते हैं, जिनका फल आता है। इसलिए होश के साथ अच्छे विचार करते रहें ।।

भगवान् श्री वासुदेव कृष्ण कहते हैं-

निराशीर्यतचित्तात्मा व्यक्त सर्वपरिग्रहः ।

शारीर केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ॥अर्थात् जिसका शरीर और अन्तःकरण अच्छी तरह से वश में किया हुआ है, जिसने सब प्रकार के संग्रह का परित्याग कर दिया है . ऐसा इच्छारहित (कर्मपोगी। केवल शरीर सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता।

जिसने मन को जीत लिया, वह शरीर के विषयों में नहीं उलझता, उसकी जमा करने की आदत छूट जाती है। फिर वह शरीर को जिन्दा रखने के लिए जो भी कर्म करेगा, वह कर्म उसके लिए पाप नहीं बनेगा। संत रैदास ” चर्मकार थे, फिर भी वे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर पाए। जीवन जीने के लिए उन्होंने जो कर्म किए, वे उनके लिए बन्धन का कारण नहीं बने।

जब सत्य का ज्ञान प्राप्त होता है तो सारी धारणाएँ, सभी भ्रम एक साथ विलीन हो जाते हैं। फिर कर्म का वास्तविक अर्थ पता चलता है और कोई कर्ताभाव नहीं बनता पानी कर्म होते हुए भी उसका श्रेय (क्रेडिट) नहीं लिया जाता।

जिस इन्सान के द्वारा अहं भाव रहित कर्म होते हैं वह अपने जीवनयापन के लिए जो भी करता है, वह मात्र अपने शरीर को जिन्दा रखने के लिए होता है। अर्थात् जिसमें कर्ताभाव नहीं होता, उसके कर्म पाप मुक्त होते हैं। वह संसार में रहते हुए भी किसी कर्मबन्धन में नहीं बँधता। उसके द्वारा किए गए कर्म विकाररहित होते हैं, जैसे घृणा, नफरत, क्रोध, लोभ लालच, ईर्ष्या, द्वेष इत्यादि। उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे परमेश्वर को समर्पित होते हैं, वे कर्म ईश्वर की भक्ति और प्रेम में लीन होकर किए जाते हैं। कर्म करने के पीछे जो भाव और उद्देश्य है, इस पर निश्चित किया जा सकता है कि कर्म, बन्धन बना रहा है या बन्धनों से मुक्त कर रहा है। जिस कर्म में क्रिया होती है, लेकिन कर्ताभाव एवं विकार नहीं होते वे कर्म, अकर्म कहलाते हैं। इस तरह कर्म का बगान नहीं बँधता। पही उसकी पहचान है। जिन कर्मों से बन्धन बने वे प्रतिकर्म है। जिन कर्मों से लोहे की जंजीर। बंधन) बंधे, वे निकर्म हैं। जिन कर्मों षे सोने की जंजीर (बंधन) बंध, वे सकर्म हैं। बंधनों से मुक्त होने के बाद जो कर्म होते हैं, वे हैं.” तेज कर्म

मोक्ष मिलने से पहले कर्म होते हैं, मोक्ष मिलने के बाद भी कर्म होते हैं, मगर दोनों कर्म अलग अलग होते हैं। दोनों कमाँ को हम एक ही नाम से पुकारेंगे तो भ्रम तैयार होगा। अतः अलग अलग शब्द बताए जाते हैं, ताकि लोगों को पता हो कि निश्चित उन्हें ऐसे कर्म करने हैं, जिनसे बंधन न बने, जिनसे मोक्ष का दरवाजा स्वयं के लिए और दूसरों के लिए भी सदा खुला रहे। जो ऐसा कर्म करता है या कर्म की आत्मा जगाता है, उसे कर्मयोगी कहा जाता है। कर्मयोगी, परमेश्वर द्वारा मिले कर्म संकेत समझ पाता है। उस संकेत को समझकर यदि वह कर्म करता है तो वे ही कर्म उसके लिए मुक्ति का दरवाजा खोलते है।

सावशेष……………….