: कर्म विज्ञान का बोध: कर्म फल का सिद्धान्त/swami shivendra swroop

कर्म फल का सिद्धान्त

अब विचार करना है कर्म फल का सिद्धान्त क्या है? तो आइए विचार प्रारम्भ करते हैं:

  • कर्म फल का सिद्धान्त

श्रीमद्भगवद्गीताजी वाले भगवान् श्री वासुदेव कृष्ण कहते हैं-

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्वक्रवा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छत्यनामयम् ॥

अर्थात् क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होनेवाले फल को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हो, निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं। कर्म और फल की उलझन

कर्म के सिद्धान्त में हेराफेरी नहीं की जा सकती और न ही व्यापार किया जा सकता है। यदि कोई कहे कि मैंने चार बुरे कर्म किए और अब चार अच्छे कर्म करूँगा तो इससे मेरा कर्मों का हिसाब किताब बराबर हो जाएगा, न्यूट्रल हो जाएगा, इस तरह कर्म के बन्धन से मुझे छुटकारा मिल जाएगा। लेकिन असल में ऐसा नहीं है। चार बुरे कर्म और फिर चार अच्छे कर्म किए तो आपको 8 आठ फल मिलेंगे।

ईश्वर के नियम अनुसार कर्म का फल मिलता ही है, इसके लिए आप कोई वकील नहीं कर सकते, कि वह आपको कर्म के फल से छुड़ा पाए। कर्म के फल से छुटकारा पाने में कोई वकील आपकी मदद नहीं कर सकता। सिर्फ एक आत्मबोध प्राप्त गुरु ही कर्म बन्धन से मुक्त कर सकता है।

फल कोई भी मिले, यदि हमारा फोकस सत्य पर होगा, तो हमारा कर्म भी बढ़िया होगा। जब हमें ऐसा प्रशिक्षण मिल जाएगा, तो जो कर्म होंगे, वे वाकई में कर्म ही होंगे, वह समग्र प्रतिसाद होगा। और समग्र प्रतिसाद ही सम्पूर्ण मोक्ष का दरवाजा खोलता है। कर्मों के गोल चक्कर से मुक्त करता है, जिसमें घूम घूमकर कोई कहीं पहुँच नहीं पाता। इस गोल चक्कर से बाहर आने के लिए कर्म का सिद्धान्त समझे।

हमारे द्वारा कई बार बहुत से कर्म होते हैं, लेकिन उनका फल एक ही आता है और इससे आपको यह भ्रम होता है कि हमारे बाकी के कर्म बेकार गए और अभी जो फल मिला है, वह निश्चित ही हमारे द्वारा किए गए किसी एक कर्म का है। इस बात को एक उदाहरण से समझें:

एक विद्यार्थी एम. एस. सी. की परीक्षा में पास हो गया। विद्यार्थी को पास होने का फल मिला, लेकिन यह एक फल मिले, इसके लिए उससे बहुत सारे कर्म करवाए गए। जैसे एम. एस. सी. के लिए एडमिशन लेना, हर रोज स्कूल जाना, किताबें खरीता, हर रोज पढ़ना, नोट्स तैयार करना, मनन करना, जवाब कण्ठस्थ करना, सवालों के पेपर (प्रश्नावली) हल करना, प्रयोग करना, परीक्षा देना इत्यादि। इसका अर्थ है कि उस विद्यार्थी ने साल भर बहुत सारे कर्म किए, लेकिन उसे फल एक ही मिला, “परीक्षा में पास होना।”

कर्म के कानून की दो मुख्य गलत धारणाओं की वजह से लोग उलझ जाते है। ये धारणाएँ हैं:

  1. कर्म का फल लम्बे समय के बाद मिलता है कई लोगों में यह मान्यता होती है कि यदि हमने अभी कर्म किया तो उसका फल हमें भविष्य में या अगले जन्म में मिलेगा। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि अगला जन्म किसने देखा है, जो भी करना है अभी कर लो। हकिकत तो यह है कि जैसे ही आप कर्म करेंगे, वैसे ही आपको उस कर्म के फल का बल मिलता है।

अगर आपने किसी को दान दिया तो आपको आनन्द उसी वक्त मिलता है या आपने किसी के लिए कोई प्रार्थना की तो आपको खुशी और संतुष्टि भी तुरन्त महसूस होती है। यदि आपने किसी के लिए द्वेष, घृणा, गुस्सा या नफरत के भाव रखे, तो आपको अपने अन्दर उसी वक्त जलन महसूस होती है, तकलीफ होती है। आप जब भी किसी और पर गुस्सा करते हैं, तो सबसे पहले आपको ही तकलीफ होती है, ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है, नब्ज तेज हो जाती है, हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, पूरे शरीर का खून खोलने लगता है, सिर में दर्द शुरू हो जाता है इत्यादि। यानी गुस्सा करते ही आपको उस कर्म का बल पानी आनेवाले फल का स्वाद तुरन्त दिया जाता है।

  1. कर्म का फल कर्म होता है कई लोग मानते हैं कि कर्म का फल कर्म होता है, जो कि गलत है। आज तक लोगों की यही धारणा रही है कि पिछले जन्म में किए गए कर्मों का फल इस जन्म में मिलता है।”

एक दिन एक गुरु और शिष्य किसी गाँव से गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक पत्नी अपने पति को खाना परोस रही थी । पति की थाली में कुछ कचरा और पत्थर डाला रही थी और बीच-बीच में अपने पति को चिकोटी भी काट रही थी। इस तरह खाना खाते हुए अपने पति को वह बार बार सताए जा रही थी। उसके पति की हालत खराब थी। यह देखकर शिष्य ने अपने गुरुजी से पूछा, “गुरुजी, पति की हालत इतनी खराब क्यों है? इसे तो ठीक से खाना भी नहीं मिल रहा है। इसकी बीबी बार- बार उसे सता रही है। ऐसा क्यों?” गुरुजी ने शिष्य के सवाल का जवाब देते हुए कहा, पिछले जन्म में यह पत्नी गाय थी और उसका पति कोआ था। गाय की पीठ पर एक जख्म था अर्थात् घाव था। जब गाय खाना खाती थी, तो कौआ उसकी पीठ पर बैठकर उसके जख्म अर्थात् घाव से मांस कुरेद- कुरेद कर खाता था। उसका फल कौए को इस जन्म में भुगतना पड़ रहा है। पति अपने पिछले जन्म के कर्मों का फल भुगत रहा है और गाय पत्नी बनकर उस कौए से बदला ले रही है। गुरु द्वारा दिया गया यह जवाब आपको सही और तर्कसंगत लगा होगा। लोगों को तर्कसंगत जवाब सही लगते हैं। लेकिन कर्म का सिद्धान्त ऐसा नहीं है। इस तरह की कहानियाँ लोगों से अच्छे काम करवाने के लिए तथा अपने कमाँ को सत्र से भोगने के लिए बनाई और सुनाई जाती है।

एक छोटा बच्चा चींटी को गर्म फर्श पर रख देता है। वह देखना चाहता है कि ऐसा करने पर चीटी के साथ क्या होगा। बच्चा सिर्फ एक प्रयोग कर रहा है। लेकिन उसके घरवाले ऐसा करने से रोकते हैं कि चींटी को मत मारो करना अगले जन्म में तुम चींटी बनोगे और वह चींटी इन्सान बनकर तुम्हें इसी तरह मारेगी। यह सुनकर उस बच्चे के मन में सवाल आता है, ऐसा भी तो हो सकता है कि पिछले जन्म में चींटी ने मुझे मारा हो और इसलिए अब इस जन्म में में में चींटी को मार रहा हूँ।

इस उदारण से समझें कि कोई भी इन्सान दावे के साथ नहीं कह सकता कि पिछले जन्म में कौन चींटी था और कौन इन्सान। हर विचारक के मन में कभी न कभी तो यह सवाल आता ही है। जब हम इस विषय पर गहाराई से समझने लगते हैं तो पता चलता है कि कर्म का फल उसी कर्म के रूप में नहीं मिलता। आमतौर पर लोग समझते हैं कि में जो कर्म करूँगा, बदले में फल के रूप में उस कर्म की ही पुनरावृत्ति अर्थात् रिपीटेशन होगी, सिर्फ स्थान और इन्सान को आपस में बदल दिया जाएगा।

अगर आपने किसी इन्सान को थप्पड़ मारा तो क्या आपको थप्पड़ मारने के लिए उसे फिर से जन्म लेना पड़ेगा? क्या आपकी वजह से वह इन्सान भी बंधन में बन्ध जाएगा। उस इन्सान को क्या बिना कोई पाप या कर्म किए दूसरा जन्म लेना पड़ेगा? आपका थप्पड़ खाने से उसे मार भी पड़ी और दूसरा जन्म भी लेना पड़े, ऐसा क्यों? हकीकत में देखा जाए तो ऐसा परिणाम भोगने की उसे कोई जरूरत ही नहीं है। किसी और का कर्म दूसरे के लिए बन्धन का कारण क्यों बनेगा? कर्म किसी और ने किया तो उसका फल कोई और क्यों भुगतेगा? विचार करिएगा।

. श्रीमद्भगवद गीता के श्री वासुदेव कृष्ण कहते हैं:

आपको केवल कर्म करने का अधिकार है, फल का कभी नहीं।

पृथ्वी कर्म के फल का कारण न बने, न अकर्म में आसक्ति हो।

अर्थात् कर्तव्य कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी कर्म न करने भी आसक्ति न हो।

  • कर्म करें महाफल की इच्छा करें

इन्सान दोनों तरफ से दुखी होता है कर्म का फल अच्छा मिले तो भी, न मिले तो भी। इन्सान फल आपा तो जिस चैनल (माध्यम) से आया, उसे ही स्रोत मान लेता है (चेनल पानी जिस इन्सान के द्वारा कार्य हुआ। और फिर भविष्य में यदि उस चैनल ने मदद नहीं की तो वह दुःखी होता है। जो भाई पहले बहुत मदद करता था, उसने मदद बन्द कर दिया तो वह कहता है, ” मेरा भाई अब भाई न रहा। पिताजी ने बेटे को जायदाद से बेदखल कर दिया तो बेटे को पिताजी से नफरत होने लगती है। ये सब इसलिए होता है, क्योंकि लोग अपने रिश्तेदार को ही देनेवाला समझ लेते हैं, उसे ही स्रोत मान लेते हैं और फिर दुःखी होते हैं । उन्हें पता नहीं है कि फल में अटकने की गलती की, उन्हें क्या सजा मिलेगी। हो सकता है कि वह ईश्वर की ही भूल जाए, इससे बड़ा नुकसान और क्या हो सकता है। इसलिए उपरोक्त श्लोक को एक नए ढंग से समझें कर्म करें और फल की इच्छा स्रोत से करें और भरपूर करें। या अगर ईश्वर कहता तो वह कहता” मेरे साथ कर्म करो और भरपूर की इच्छा करो। लेकिन जब तुम किसी और के साथ इच्छा रखते हो तो गलती हो जाती है।” या इसे ऐसे भी कहा जा सकता है विश्वास बी डालें और भरपूर की इच्छा रखें, लेकिन स्रोत से रखें।

जब इन्सान के पास यह समझ नहीं होती, तब उसे कहा जाता है कि तुम केवल अपना कर्म करो, बाकी सब ठीक होगा। एक एक करके सारे रहस्य खुलने लग जाएँगे। सोचिए कि उसे ऐसा क्यों कहा जाता है? क्योंकि फल के बारे में इन्सान से हमेशा गलती हो जाती है।


सावशेष