कर्म न करना भी कर्म है।
इन्सान बाहर से कुछ करते हुए दिखाई देता है तो लोग उसे कर्म कहते है, लेकिन बाहर से कुछ न करना भी कर्म ही है। यह छूटी हुई कड़ी उसे बहुत देर से समझ में आती है। इसलिए कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है।
लोग कर्मबन्धन और कर्मफल से मुक्त होने के लिए सोचते हैं कि हम कर्म ही नहीं करेंगे, चाहे वे कर्म अच्छे हों या बुरे हो। अगर हमने कर्म ही नहीं किए तो बन्धन भी नहीं बनेगा और कर्म के अच्छे या बुरे फल में हम आजाद हो जाएँगे।” ऐसे लोग संन्यास ले लेते हैं, जंगल में चले जाते हैं और अकेले रहते हैं। वे सोचते हैं, जंगल में हम लोगों से दूर रहेंगे तो हमारे व्यावहारिक कर्म अपने आप बन्द हो जाएँगे। हम संन्यास लेंगे तो शादी करने से जो पारिवारिक कर्म होते हैं, उनसे हमें मुक्ति मिल जाएगी।
अगर संसार में रहेंगे तो शादी होगी, बीबी आएगी, बच्चे होंगे, उनके लिए नौकरी करनी पड़ेगी, पैसा कमाना पड़ेगा, पैसों की वजह से कभी-कभी कपट करना पड़ेगा। इन सभी बातो पर बीबी से विवाद होगा, कुछ अच्छे बुरे कर्म होंगे, जिनसे कर्मबन्धन बनेगा। उन कर्मों का अच्छा बुरा फल भी हमें भुगतना पड़ेगा। ऐसे कर्मबन्धन बनाने से अच्छा है कि हम शादी ही न करें, संसार में ही न रहें। फिर न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। न होगा कर्म, न मिलेगा फल, न होगा कर्मबन्धन। वास्तव में ये सब करना संसार से भागना अज्ञान है, इससे आपको कर्मबन्धन से मुक्ति नहीं मिलेगी।
आपने यदि संसार का त्याग किया और संन्यास लेकर किसी जंगत में या आश्रम आदि में रहने लगे तो भी आप कर्म से मुक्त नहीं होंगे। आपको परमात्मा द्वारा शरीर मिला है तो उसे चलाने के लिए आप कुछ-न-कुछ कर्म तो करने ही वाते हैं, यह स्वाभाविक है। आपके शरीर मन, वाणी या बुद्धि द्वारा कर्म तो होने ही वाले है। आप कर्म किए बिना रह नहीं सकते। इस बात को समझने के लिए आप एक प्रयोग करके देखें।
किसी दिन निश्चित करें कि आज दिनभर में कुछ नहीं करनेवाला हूँ। उस दिन आपको एक ही जगह पर बैठे रहना है। यह प्रयोग करने से आपको पता चलेगा कि आपके साथ क्या होता है। यह प्रयोग करने के बाद आप देखेंगे कि आपका शरीर एक जगह पर बैठ ही नहीं पा रहा है। वह बार बार उठेगा, बाहर जाएगा, खाना खाएगा, टी. वी देखेगा, हाथ पाँव हिलाएगा, कुछ – न. कुछ करता रहेगा। विचार चाहे अच्छे हों या बुरे, भूतकाल के हों या भविष्यकाल के, लेकिन विचारों के द्वारा भी कर्म के बीज डाले जाते हैं। सिर्फ शरीर से क्रिया हुई तो कर्म हुआ, ऐसा नहीं।
कर्म करने के बाद फल की इच्छा नहीं की तो भी उस कर्म का फल आने ही वाला है। कर्म का फल आता है, फिर चाहे फल की इच्छा हो या न हो। जैसे कोई चोर चोरी करे और कहे, मुझे इस कर्म का फल नहीं चाहिए, मैं तो गीताजी में बताई गई बातों का पालन कर रहा हूँ। मैं कर्म करूँगा, मगर मुझे फल की कोई अपेक्षा नहीं है। अब इस चोर को फल की कोई इच्छा नहीं है, मगर उसे चोरी करने के कर्म का फल जरूर मिलेगा। वह जहाँ भी जाएगा, वहाँ लोग उसे पकड़कर पुलिस के पास ले जाएँगे, उसे जेल में बन्द किया जाएगा। इसका अर्थ न चाहते हुए भी उसे कर्म का फल भुगतना पड़ेगा।
वैसे ही कोई इन्सान व्यापार या नौकरी करने का कर्म करता है तो उसे अच्छे पैसे मिलेते है, अर्थात् उसे कर्म का फल मिलता है, लेकिन जब वह व्यापार या नौकरी करने का कर्म नहीं करता। कर्म न करने का कर्म करता है। तब वह कंगाल हो जाता है इसका अर्थ वह कर्म न करने का फल पाता है। इस उदाहरण से आपने समझा कि कोई भी इन्सान बिना कर्म किए रह ही नहीं सकता या तो वह कुछ कर रहा होता है, या कुछ भी नहीं कर रहा होता है, दोनों ही कर्म हैं। कर्म करने का फल कर्म, न करने के फल से बेहतर है, इसलिए कर्म करने को ज्यादा महत्त्व दिया गया है।
सावशेष……….