प्रतिकर्म
जो कर्म आपको आपका (जो आप वास्तव में है। ज्ञान कराएँ, वे पुण्यकर्म है, जो कर्म आपको अपने आपसे दूर ले जाएँ . जिनकी वजह से आप अपने सच्चे स्वरूप को भूल जाएँ, वे पापकर्म है। ऐसा जाने।
प्रतिकर्म
- प्रतिकर्म” यानी प्रतिक्रिया (रिऐक्शन)। एक इन्सान ने आपको गाली दी तो आप भी उसे गाली देते हैं। अगर वह इन्सान आपको गाली नहीं देता तो आप भी उसे गाली नहीं देते, यानी आपका गाली देना पान देना उस इन्सान पर, उसके द्वारा दी गई गाली पर निर्भर करता है। यह है प्रतिकर्म। हर इन्सान के कर्म कम तथा प्रतिकर्म ज्यादा होते हैं।
जब आपका कर्म दूसरों की क्रिया पर निर्भर होता है, तब वह प्रतिकर्म होता है। किसी ने आपकी प्रशंसा की तो आपने भी उसकी प्रशंसा की। अगर वह आपकी प्रशंसा नहीं करता तो आप भी उसकी प्रशंसा नहीं करते थे। जब आपमें कर्म विज्ञान का बोध जाग्रत् होगा, तब सामनेवाले ने आपकी प्रशंसा नहीं की तो भी आप सामनेवाले का सम्मान ही करेंगे। उसकी तारीफ करने पर आपका सम्मान निर्भर नहीं है। आप सत्य देख रहे हैं, इसलिए सम्मान कर रहे है। सामनेवाले के कुछ करने पर आपका कर्म निर्भर नहीं है।
यदि कोई कहे कि वातावरण ऐसा था, इसलिए मुझे गुस्सा आया तो इसे भी प्रतिकर्म कहा जाएगा, क्योंकि उसका कर्म वातावरण पर निर्भर है। वैसे ही कोई कहता है, अगर मेरा मित्र पढ़ाई करेगा तो में भी पढ़ाई करूँगा” यदि सामनेवाला कहता है • अब में रोज व्यायाम करूंगा और आप कहते हैं, में भी रोज व्यायाम करूँगा इस क्रिया को प्रतिक्रिया कहा जाता है, जिसमें समझ नहीं है। जबकि समझ यह होनी चाहिए कि सामनेवाला व्यायाम करे या न करे, मगर में अपना स्वास्थ्य ठीक रखने
के लिए रोज व्यायाम करूँगा। यदि व्यायाम करना मेरे लिए आवश्यक है तो में व्यायाम करूँगा।
प्रतिकर्म में समझ नहीं होती। आपके आजू बाजू में होनेवाली घटनाएँ तय करती हैं कि आप क्या करेंगे। दो रुपये का अखबार भी आपका स्वभाव बता सकता है कि आज आप क्या करनेवाले हैं। इन्सान बेहोशी में जीवन जी रहा है, प्रतिकर्म (गुलामकर्म) ही कर रहा है। समझ के द्वारा अब आपको प्रतिकर्म से मुक्त होना है।
अज्ञान में कुछ लोग कहते हैं, आप सिर्फ अपना कर्म करें, आपको किसी सत्य श्रवण की जरूरत नहीं है। ऐसे अज्ञानियों को कहा जाएगा कि यह बिल्कुल सही है, इन्सान सिर्फ अपना कर्म करे, काफी है, मगर क्या वह कर्म है या प्रतिकर्म, यह जरूर देखें। इन्सान को जीवन के अन्तर में पता चलता है कि जिसे वह कर्म कह रहा था, वह कर्म था ही नहीं। यदि कोई अंधेरे (अज्ञान) में, बिना रस्सी खोले पूरी रातभर नाव का चप्पू चलाता रहेगा तो उसे सुबह नाव किनारे पर ही बंधी हुई मिलेगी। कारण उसके द्वारा नाव की रस्सी खोलने का कर्म हुआ ही नहीं तो वह मंजिल पर पहुँचने का फल कैसे पाएगा? नाव की रस्सी खोलना यानी सत्यश्रवण द्वारा अज्ञान दुर करना।
” सुकारात बहुत ही माने हुए ज्ञानी थे। वे हर पल, हर क्षण सत्य की अभिव्यक्ति में लीन रहते थे, वे अपने अन्तेवासी शिष्यों के साथ सत्य की चर्चा में अपना समय व्यतीत करते थे। उनकी पत्नी को यह बिल्कुल भी पसंद नहीं था। वह गुस्से में उन पर कूड़े-करकट डाल देती थी। ऐसे वक्त में सुकरात महाशय बिना प्रतिकर्म किए अपने शिष्यों को यही समझाते थे कि उनकी बीबी उनकी मदद ही कर रही है। उनकी बीबी के व्यवहार से उन्हें पता चलता है कि उनके अन्दर क्या विचार उठते हैं। कही नफरत तो नहीं उठ रही। इस तरह उन्होंने दूसरों के हर कर्म को सीढ़ी बनाया, न कि प्रतिकर्म। वे कर्म और प्रतिकर्म से दूर थे। सुकरात के जो भी कर्म थे, वे अनुभव द्वारा हो रहे थे। वे कर्म, कर्म नहीं, उनकी अभिव्यक्ति थे।
विकर्म: विशेष कर्म:
इन्सान को जब कर्म प्रतिकर्म का ज्ञान होता है, तब उसकी समझ खुल जाती है। वह प्रतिकर्म से आगे बढ़कर विकर्म तक पहुँचता है। विकर्म करके इन्सान वर्तमान में रहता है, यानी कर्म करते हुए उसका मन कार्य में एकाग्रत और सजग होता है। जब इन्सान वर्तमान में रहते हुए कर्म करता है, तब वह कर्म, विकर्म (विशेष कर्म) हो जाता है।
कर्म करते वक्त इन्सान के भाव, विचार, वाणी और क्रिया सभी एक होनी चाहिए, चारों से एक ही दिशा में कर्म होने चाहिए, तभी वह कर्म अखण्ड बन पाएगा वरना अकसर देखा जाता है कि कर्म एक चल रहा है, मन कुछ सोच रहा है और मन की भावना बिल्कुल विपरीत है। इस तरह इन्सान का कर्म विभाजित हो जाता है।
एक इन्सान मन्दिर में जाकर शिवलिङ्ग” की पूजा करता है। उस पर बेलपत्र, फूल, दूध चढ़ाता है। मुँह से मन्त का जाप भी करता है, लेकिन उसका मन घर पर रहता है। घर में पत्नी से उसका विवाद हुआ था, पत्नी ने उसका अपमान किया था, इसलिए उसके मन में ये ही विचार चल रहे हैं कि आज उसने ऐसा कहा… वैसा कहा मेरा जीवन केसा है… पत्नी मेरा आदर ही नहीं करती मेरी बातें नहीं सुनती। इस तरह उसके मन में कर्म के विपरीत विचार और वाणी के विपरीत भाव चल रहे हैं। वर्तमान में शरीर से पूजा अर्चना का कर्म चल रहा है, लेकिन उसका मन दूसरी जगह पर है, इसलिए उसका कर्म ऐसा है, जैसे पत्थर द्वारा पत्थर की पूजा हो रही हो। शरीर अचेतन, जड़, पत्थर जैसा ही तो है। उस इन्सान के कर्म सिर्फ शरीर से हो रहे है, मनीराम कहीं और है, भावना खोई हुई है।
ऐसी पूजा के लिए ही तो कबीर ने कहा है,” पाहन पूजे प्रभु मिले तो मैं पूजूँ पहाड़ ” यानी पत्थर बनकर पत्थर पूजने से प्रभु मिलता हो तो छोटे पत्थर को क्यों पूजें। तब तो पर्वतमालाओं को पूजना चाहिए।
जिस तरह रेडियो अचेतन है, बेटरी डालने से वह चलता है। उसी तरह हमारा शरीर भी अचेतन है, उस शरीर को चलानेवाली बेटरी है चैतन्य, स्वसाक्षी या परमेश्वर। उस चेतना से और उसकी प्रेरणा से कर्म होना चाहिए। इसका अर्थ है कि कार्य करते वक्त आपका मन भी उसी कार्य में मन होना चाहिए तो ही आपका कर्म विकर्म यानी विशेष कर्म बन सकता है।अकर्म
जिस तरह रेडियो अचेतन है, बेटरी डालने से वह चलता है। उसी तरह हमारा शरीर भी अचेतन है, उस शरीर को चलानेवाली बैटरी है चैतन्य, स्वसाक्षी या परमेश्वर। उस चेतना से और उसकी प्रेरणा से कर्म होना चाहिए। इसका अर्थ है कि कार्य करते वक्त आपका मन भी उसी कार्य में मग्न होना चाहिए तो ही आपका कर्म विकर्म यानी विशेष कर्म बन सकता है
” अकर्म” अर्थात् कर्म होते हुए भी मैं कर्ता नहीं हूँ” । सिर्फ वाणी से नहीं। भाव होना चाहिए। इसका अर्थ इन्सान से कर्म होते हुए भी अगर सत्य की समझ होने की वजह से उस कर्म का श्रेय (क्रेडित) नहीं लेता तो वह अकर्म है।
अकर्म का अर्थ कोई भी कर्म न करना, निष्क्रिय होना नहीं है। अगर हमें परमात्मा द्वारा यह शरीर मिला है तो उससे कर्म होने ही वाले हैं। कर्म के बिना इन्सान की कोई कीमत नहीं है, वह मृत है। इन्सान के जीवन में कोई न कोई कर्म तो चल ही रहा है। जो कर्म अहंभाव से रहित होते हैं, अर्थात् जिसमें कर्ताभाव नहीं होता है, जो कर्म विकार रहित होते हैं, जैसे घृणा रहित, नफरत रहित, क्रोध रहित इत्यादि, जो कर्म परमेश्वर को समर्पित होते हैं, भृत्यभाव से होते हैं, जो कर्म परमेश्वर की भक्ति और प्रेम में लीन होकर होते हैं, ऐसे कर्म, अकर्म के क्षेत्र में आते हैं। कर्म का अकर्म होना अथवा अकर्म का कर्म होना, यह उसकी क्रियाशीलता पर आधारित नहीं है।
कर्म करने के पीछे जो भाव और उद्देश्य है, इस पर निश्चित किया जा सकता है कि आपकी क्रिया कर्म है या अकर्म। जिस कर्म में क्रिया होती है, लेकिन कर्ताभाव एवं विकार नहीं होते वे कर्म, अकर्म कहलाते हैं। अकर्म होने से कर्म का बन्धन नहीं बंधता। यही अकर्म की पहचान है। जिस कर्म से बन्धन बने वे प्रतिकर्म है। जिन कमों से बन्धन न बने, वे अकर्म है। जिन कर्मों से लोहे की जंजीर । बन्धन) बंध, वे निकर्म हैं। जिन कर्मों से सोने की जंजीर। बन्धन। बंध, वे सकर्म है। बन्धनों से मुक्त होने के बाद जो कर्म होते हैं, वे हे तेज कर्म। हम आगे कर्म फल के सिद्धान्त पर भी विचार करेंगे।