: कर्म विज्ञान का बोध: पुण्य कर्म भाग- 4
- जिस कर्म के पीछे कर्ताभाव नहीं होता, वह कर्म पाप पुण्य से मुक्त होता है। गीता वाले भगवान् श्री वासुदेव कृष्ण कहते हैं:
श्रेयान्स्वधर्मी विगुणः परचर्मात्यनुष्ठितात् । स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ॥
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सर्वारम्भा हि दोषेण धूमनाग्निरिवावृत्ताः ॥
३ श्रीगीताजी- अध्याय 18 प्रलोक संख्या 47, 48)
अर्थात् अच्छी तरह आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है। क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्म रूप को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।
हे कुन्तीनन्दन। दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँ से अग्नि की तरह, किसी-
न. किसी दोष से युक्त है।
पुण्य कर्म
किसी चिकित्सक को बचपन से चित्रकार बनने की ख्वाहिश रही हो, मगर अगर वह परिवारजनों की इच्छा मुताबिक चिकित्सक बन जाए तो वह कभी भी उतना उत्तम चिकित्सक नहीं बन पाएगा, जितना बेहतर चित्रकार बनता। ऐसे में वहआन्तरिक तौर पर अपने अन्दर सदा से एक खालीपन महसूस करेगा। इसके पीछे कारण है उसके अन्दर छिपा चित्रकार।
नारायण। इसी आशय को दूसरे शब्दों में यों कहा जाएगा कि यदि आप दूसरे के स्वभाव को कितनी भी अच्छी तरह से अपनाएँ, फिर भी आप उत्तने खुश नहीं रहेंगे, जितने आप अपने स्वभाव को जानकर आनन्दित रह सकते हैं।
आध्यात्मिक जगत् की यह एक छुटी हुई कड़ी है, जिसमें कहीं पर भी सेल्प और शरीर के गुणों का विस्तृत वर्णन नहीं किया गया है। आध्यात्मिक धर्म ग्रन्थों में कहीं पर भी यह दर्ज नहीं है कि फलाँ पक्ति सेल्फ (स्रोत) के लिए कही गई और फा इन्सानी शरीर के लिए। इसी कारण लोगों की उलझने सुलझने की बजाय और भी बढ़ती गई।
अतः अपने स्वभाव को जानते हुए किया गया व्यवहार या कार्य, दूसरों के अन्ध अनुकरण से कहीं बेहतर है। दूसरों के आचरण का सही अनुकरण करने के बाद भी सम्पूर्ण संतुष्टि नहीं मिल सकती। इसलिए समझ यह हो कि हर कर्म (कार्य) का आनन्द लिया जा सकता है, बशर्ते वह अपने स्वभाव से प्रेरित होकर किया गया हो। इसी के निहित पाप और पुण्य की परिभाषा बनी है।
पाप क्या है और पुण्य क्या है? अज्ञान रूपी इन्सान की पाप और पुण्य की परिभाषा अगल अलग हो सकती है। जैसे – कोई सोचता है कि किसी को भी वाणी या क्रिया से कोई चोट पहुंचाई जाए तो वह पापकर्म है। मगर भाव और विचारों द्वारा भी बुरे कर्म हो सकते हैं, वे भी पापकर्म होते हैं और उसका भी परिणाम आता है। अज्ञानवश जब कोई यह समझ लेता है कि में कमाँ को करनेवाला हूँ” तब उसका हर कर्म पाप हो जाता है और उसी अज्ञान के कारण वह पाप का परिणाम दुःख के रूप में भोगता है। पुण्य अर्थात् जहाँ कर्ताभाव मिट जाता है। जब उसका प्रत्येक कार्य परमेश्वर को समर्पित हुआ है, ऐसे साधक द्वारा जो भी कर्म होगा, वह पुण्य ही होता है।
इन्सान बाहर से देखकर अच्छे और बुरे कर्म का अनुमान लगाता है, परन्तु कर्म के पीछे असती कारण क्या है, क्या भाव है यह देखना आवश्यक है। कभी कभी बाहर से बुरा दिखनेवाला कर्म अन्दर से अच्छा हो सकता है और बाहर से अच्छा दिखनेवाला कर्म अन्दर से बुरा हो सकता है, इसलिए कई बार लोगों को लगता है कि बुरे कर्मों का फल अच्छा आता है और अच्छे कर्मों का फत बुरा आता है। इस बात को और सूक्ष्मता से जानेंगे तो आपको पता बलेगा कि अच्छे कर्म का बुरा फल और बुरे कर्म का अच्छा फल, यह केवल हमारे मन की सोच है।
जिस कर्म को आप अच्छा कहते है, वह आपकी स्वयं की परिभाषा है। जो कर्म आपको अच्छा दिखता है, वह किसी और को भी अच्छा दिखेगा, ऐसा जरूरी नहीं है। किसी और के दृष्टिकोण से वही अच्छा कर्म बुरा भी हो सकता है। हमेशा यह बात ध्यान में रखें कि हमें कर्म के सिर्फ बाह्य स्वरूप पर ही ध्यान नहीं देना है, बल्कि उसके पीछे के भावों को भी जानने की कोशिश करनी है।
विचार करिए, एक चिकित्सक जिस भाव से मरीज का इलाज करता है, वह भाव कर्मात्मा (कर्म की आमा) है। अगर पैसों के तालच में चिकित्सक मरीज को वह दवा देता है, जिसकी उसे जरूरत नहीं तो उस कर्म का बुरा फल आता है। जब चिकित्सक अच्छे भाव से रोगी के पेट में चाकू भी मारता है तो उसका अच्छा फल आता है। रोगी का ऑपरेशन करने के लिए यदि उसका पेट काटना जरूरी है तो यह कर्म बाहर से चाहे कैसा भी दिखे, लेकिन वह अच्छा कर्म है।
कर्म चाहे नकारात्मक हो, सकारात्मक हो पा निष्काम हो, सभी का परिणाम आता है। सिर्फ क्रिया को ही कर्म समझकर फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए, बल्कि किस भाव से क्रिया की जा रही है? उस वक्त मन में कौन से विचार उठ रहे हैं? वाणी से कौन से शब्द निकल रहे हैं? यह देखना जरूरी है, क्योंकि ये सब कर्म के हिस्से हैं।
नारायण। कर्म करते वक्त आप खुद से सवाल पूछ सकते हैं कि में ये कर्म क्यों करने जा रहा हूँ? यह कर्म करने के पीछे मेरे कौन से भाव हैं?” इन्सान की वृत्तियाँ, संस्कार और कर्म करने के पीछे का भाव उसके कर्मबन्धन का कारण बनते है। अगर इन्सान चाहता है कि उसके कर्म, बन्धन न बनाएँ तो उसे कर्म करते वक्त सजग रहना पड़ेगा। जब आप कर्म करने से पहले ही अपनी पूछताछ ईमानदारी से करेंगे, तब आप सजग हो जाएँगे और कर्म के पीछे का भाव जान पाएँगे।
कोटे कचहरी के मुकदमे में जज का, कैदी को फाँसी की सजा सुनाने का कर्म कौन सा कर्म है? क्या उस कर्म का बन्धन बनेगा? क्या वह कैदी अगले जन्म में जज बनकर, पिछले जन्म के जज को मारेगा? जिस जल्लाद ने उस कैदी को फाँसी दी, उस जल्लाद के कर्मों का फल क्या होगा? जल्लाद का काम ही फाँसी देना होता है, क्या उसके फाँसी देने के कर्म का दुःखद बन्धन बनेगा ?
जल्लाद या जज के फाँसी देने के कर्म का दुःखद फल नहीं आएगा। क्योंकि फाँसी देना या फाँसी की सजा सुनाना, दोनों कर्म करने के पीछे, जज का भाव यह होता है कि जिस कैदी ने एक इन्सान की हत्या की है, उसे अगर आज सज्जा नहीं मिली तो वह समाज में खुले आम घुमेगा और अन्य लोगों की भी हत्या करेगा। कैदी के मन में हत्या करने के बावजूद अपराधबोध निर्माण नहीं हुआ तो वह निडर होकर और लोगों की हत्या करेगा। समाज के हित को ध्यान में रखकर जज ने फेसता सुनाया। फैसला सुनाने के पीछे अगर समाज कल्याण, समझहित, बहुजनहिताय के भाव । हैं तो फाँसी श्री की सजा सुनाकर भी जज ने पुण्य का कर्म किया है। यही कर्म का सिद्धान्त जल्लाद पर भी लागू होता है। जल्लाद के मन में फाँसी देनेवाले के प्रति क्या भाव है? यदि उसके मन में कैदी के प्रति नफरत, द्वेश, पुणा या बदले के भाव होंगे तो उनका दुःखद फल आएगा। अगर उन कर्मों में कर्ताभाव न हो तो वे कर्मबन्धन नहीं बनेंगे। अगर फैसला सुनाते वक्त जज के मन में बदले की भावना है तो उस भावना का दुःखद फल आएगा और यदि इंसाफ की भावना है तो उस भावना का सुखद फल आएगा।
अतः जज और जल्लाद ने दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का त्याग नहीं किया और अपने धर्म और कार्य के स्वभाव का पालन किया, इसलिए उसका कर्म पाप नहीं हुआ।
श्रीगीताजी वाते भगवान् श्री वासुदेव कृष्ण कहते हैं।
कर्मणों द्वापि बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्व बोद्धव्यं गहना कमणो गतिः ।
( श्रीगीताजी अध्याय 4 श्लोक संख्य, 17)
अर्थात् कर्मों का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कमाँ की गति गहन है, अर्थात् समझने में बड़ी कठिन है।
सावशेष……………