कर्म विज्ञान का बोध -कर्म के विभाग भाग- 5/swamishivendra ji mharaj

कर्म के विभाग

कर्म के सिद्धान्त को समझना कठिन है, इसलिए उसे समझाने हेतु विभाजित किया गया है। इस विभाजन से हम अपने कर्मों को जान पाएँगे और कर्मबन्धन से मुक्ति का रास्ता खोल पाएँगे।

  • सकर्म-निकर्म सकर्म और निकर्म” का शस्त्रों के अनुसार अर्थ है अच्छे कर्म और बुरे कर्म। शास्त्रों के अनुसार जो कर्म वर्जित हैं, उसे ” निकर्म” (पाप) कहते हैं।शास्त्रो के अनुसार जो करने योग्य हैं, वे” सकर्म” (पुण्य) है।

” सकर्म निकर्म। इसे इस तरह समझ सकते हैं कि सकर्म यानी जिस विचार, भाव, वाणी, क्रिया से समाज का भला हो, लोगों को अच्छा लगे, सुख महसूस हो तो वह सकर्म (सकर्म, पुण्यकर्म) है।

जिस क्रिया से किसी इन्सान, पशु, पक्षी, जीव की हानि हो, जिस विचार से किसी का नुकसान हो या जिस शब्द से किसी को बुरा लगे, दुःख पहुँचे, उसे निकर्म (कुकर्म, पापकर्म। कहते हैं।

पाप और पुण्य की परिभाषा समझने के लिए कर्म को अलग अलग पहलुओं से देखें।

जो कर्म बेहोशी में हो रहे हों, जो विचार और वाणी बेहोशी में उठ रही हो, वे पापकर्म है। जो कर्म, विचार, संवाद होश में हो रहे हों, वे पुण्यकर्म हैं।

जो विचार, वाणी, क्रिया अनावश्क है वह पापकर्म है। युद्ध यदि आवश्यक है तो वह पुण्यकर्म है, न कि पापकर्म- उदाहरण महाभारत का युद्ध आवश्यक था, इसलिए वह पुण्यकर्म बना और श्रीगीताजी का ज्ञान विश्व को भगवान् के द्वारा मिला।

जिस क्रिया में कर्ताभाव है, मैने किया ऐसी मान्यता है, वह पापकर्म है। जो किया अकर्ता भाव से की गई हो, वह पुण्यकर्म है । जो कर्म मान्यताएँ बढ़ाएँ, वे पापकर्म हैं। जो कर्म मान्यताएँ तोड़ें वे पुण्यकर्म हैं।

सावशेष…