अध्यात्म का तात्पर्य
नारायण। अध्यात्म का तात्पर्य है अपने आत्मचेग्र (आत्मा) तत्त्व का अध्ययन करना। बाह्य पदार्थों को परममूल्य न मानकर आत्मा (चेतन) को परममूल्य मानना। यह एक आन्तरिक पात्रा है। अपने निज स्वभाव से परिचित होना। मानव अस्तित्व द्विआपामी है। मनुस्य चेतना से युक्त एक शरीर है। शरीर और चेतना यह हमारे अस्तित्व के दो पक्ष है। मूल चेतना ही जीवन है, जिसके अभाव में हमारे शरीर का कोई मूल्य नहीं है। शरीर का महत्त्व चेतना पर ही निर्भर है।
वास्तव में हमारे अस्तित्व का सार हमारी चेतना ही है। अतः चेतना का जो स्वभाव होगा वही हमारा निज स्वभाव होगा। चेतना । आत्मा। का स्वरूप समत्व” है। और” समत्व” को प्राप्त कर लेना ही हमारी चेतना का साध्य है। वस्तुतः ये सभी तत्त्व जो हमारी चेतना में विक्षोभ, तनाव या विचलन उत्पन्न करते है अर्थात् चेतना के संतुलन को भंग करते हैं, ये विभाव के सूचक हैं, जिन्हें हम सामान्यतया अधर्म कहते हैं। राग, द्वेष, घृणा, आसक्ति, तृष्णा, काम, क्रोध, अहङ्कार आदि विभाव अथवा अधर्म के सूचक है और प्रेम, क्षमा, दया, शान्ति, अनासक्ति, वीतरगता, निराकुलता आदि भावों को धर्म कहा गया है, जो चेतना को संतुलित बनाये रखते है। वस्तुतः हमारा निज स्वभाव ही चेतना के असंतुलन को दूर करना है। विभाव । अधर्म) को हटाकर भाव (धर्म) की ओर लोटना ही हमारा मूल स्वभाव है। क्योंकि राग, आसक्ति, ममत्व, क्रोध, अहङ्कार आदि सभी परोक्ष है। इसकी अभिव्यक्ति अन्य के लिए होती है। जैसे राग, आसक्ति, ममत्व किसी दूसरे पर होगा। इसी प्रकार क्रोध, द्वेष, अहङ्कार आदि दूसरों के लिए है। किन्तु इन सबके कारणभूत तत्त्व बाह्य जगत् से जुड़े हैं, वे स्वतः नहीं होते। बाह्य जगत् की प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप ही इन विभावों का प्रादुर्भाव होता है। इन विभावों के हटते ही हम अपने निज स्वभाव में आ जाते हैः। इस प्रकार निज स्वभाव या आत्मचेतन ऐसा तत्त्व है, जो बाहर लाया नहीं जाता, वह तो विभाव के हटते ही स्वतः प्रकट हो जाता है। व्यक्ति जितना आत्मचेतन बनता है और अपने प्रति सजग एवं जागरूक बना रहता है, उतना ही वह मन एवं मन से निसृत निरन्तर निरन्तर विचारों से मुक्त होता है। वह अपने ही विचारों का साक्षी या द्रष्टा बन जाता है। पूर्ण आत्मचेतना की स्थिति में ही व्यक्ति को आत्मबोध होता है।
नारायण। अपनी अन्तर सत्ता के प्रति फिर से जागरूक होना और जागरूकता के उस बोध से पूर्णतः अवस्थित होना ही आत्मबोध” की प्राप्ति करना है। आत्म सत्ता अर्थात आत्मा शाश्वत है वह चिरस्थायी जीवन है, वह अन्तर गहनता में विद्यमान ऐसा सारभूत तत्त्व है, जो अदृश्य और अविनाशी है। इसे मन से समझने का प्रयास नहीं किया जा सकता, केवल मन के स्थिरहोने पर ही अन्तर की गहनता में अन्तरात्मा में प्रवेश करने पर तथा पूर्णतः जागरूक व सचेत अवस्था में ही आत्मा का अनुभव किया जा सकता है। आत्मबोध सम्पूर्णत्व की स्थिति है, यह वह अवस्था है, जिसमें समत्व होता है, इसलिए वहाँ गहन प्रशान्ति होती है। मन को अपना स्वरूप मान लेना ही आत्मबोध के लिए सबसे बड़ी बाधा है। मन के विचारों का अनवरत शोरगुल हमें अन्तर के अविचल और चिरस्थायी साम्राज्य ( आत्मसत्ता) में प्रवेश करने से रोके रखता है।
जैसे जैसे हम मन से परे सामाज्य में गहरे उतरते जाते हैं, हम विशुद्ध चेतना की स्थिति में स्थिर हो जाते हैं। उस अवस्था में हम अन्तरगहनता की अपनी ही उपस्थिति का अनुभव करके उल्लास और आनन्द से भर जाते हैं। तब हमें भौतिक शरीर के साथ- साथ समस्त बाहा संसार, निरर्थक और महत्त्वहीन प्रतीत होने लगता है और हम अपने निज स्वभाव अस्तित्व में स्थापित हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में सुख दुःख, मान अपमान, लाभ हानि से जुड़ी हुई अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें विचलित नहीं करती है तथा हमारा मन शान्त और अनुद्विग्न बना रहता है। यही” समत्व की स्थिति है और अध्यात्म का साध्य ही समत्व” की प्राप्ति है। इति मङ्गलम्।
नारायण स्मृतिः