गुरु पूजा के बारे में मेरे विचार…..
मेरे विचार पूर्ण रूप से गहन ध्यान साधना में हुई मेरी निजी अनुभूतियों पर आधारित है, किसी की नक़ल नहीं है। साधनाकाल के आरम्भ में गुरु और में दोनों ही पृथक पृथक थे। पर जैसे जैसे ध्यान साधना का अभ्यास बढ़ता गया मैनें पाया कि गुरु कोई देह नहीं हैं, तत्त्व रूप में वे नाम और रूप से परे मेरे साथ एक है। वास्तव में में तो हूँ ही नहीं, वे ही वे हैं। भौतिक देह तो उनका एक वाहन मात्र रहा है जिस पर उन्होंने अपनी लोकयात्रा पूरी की। वे वह वाहन नहीं, एक शाश्वत दिव्य चेतना है। मैनें अज्ञानतावश अपनी कल्पना में उन्हें देह की सीमितता में बाँध रखा था, पर वास्तव वे अति विराट और सर्वव्यापक हैं।
ध्यान में अनुभूत होने वाले कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म भी वे ही हैं, ध्यान में सुनाई देने वाली कूटस्थ अक्षर प्रणव की ध्वनी भी वे ही हैं। अब तो उपासक भी वे ही हैं, उपासना और उपास्थ भी वे ही हैं। उन्हें देह की सीमितता में में नहीं बाँध सकता। वे परमात्मा की अनंतता और पूर्णता हैं। उनसे पृथकता की कल्पना ही बहुत अधिक पीड़ादायक है।
वर्तमान में सहस्रार ही मेरे लिए श्रीगुरु के चरण कमल हैं। सहस्रार में ध्यान ही गुरु की पूजा है, सहस्रार में ध्यान ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है। वे परमप्रेममय और परमानन्दमय हैं।
सहस्रार परे अनंताकाश के रूप में वे ही परमशिव है। वह अनंताकाश ही मेरा उपास्य देव परमशिव है। मुझे सुख, शांति, सुरक्षा और आनंद उस अनंताकाश में ही मिलता है। उस अनंताकाश में ही एक नीले रंग का प्रकाश है जो मेरे लिए एक रहस्य है। उससे भी परे एक अति विराट श्वेत ज्योति है जो और भी बड़ा रहस्य है। उस विराट श्वेत ज्योति से भी परे भी एक श्वेत नक्षत्र है जो सारे रहस्यों का भी रहस्य है। जब भी कभी पूर्ण गुरुकृपा होगी वे सारे रहस्थ भी अनावृत हो जायेंगे। अभी तो मुझे कुछ भी नहीं पता। गुरु महाराज ने उस अनंत महाकाश में अपने परमप्रेम रूप के ध्यान में ही लगा रखा है। उस से परे की झलक मिल जाती है कभी कभी, पर उसका ज्ञान तो गुरु की पूर्ण कृपा पर ही निर्भर है जो कभी न कभी तो हो ही जायेगी, अत उसकी कोई कामना भी नहीं रही है, जैसी उनकी इच्छा।
मेरे लिए गुरु की सेवा का अर्थ है… भक्ति द्वारा अपने अंतःकरण पानि मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का उनके श्री चरणों में पूर्ण समर्पण व आत्मतत्व में स्थिति की निरंतर साधना। यही गुरु की वास्तविक सेवा है। ‘गु” का अर्थ है अज्ञान रुपी अन्धकार, और “रू” का अर्थ है मिटाने वाला। गुरु हमारे अज्ञान रुपी अन्धकार को मिटा देते हैं। “गु” का अर्थ है गुणातीत होना, और रु का अर्थ है रूपातीत होना। गुरु सभी गुणों (सत, रज व तम), रूपों व माया से परे है। “गु” माया का भासक है, “रू” परब्रह्म है जो माया को मिटा देते हैं।
यस्य अन्तम् न आदि मध्यम् न हि कर चरणं नाम गोत्रं न श्रोत्र।
न जाति नैव वर्ण न भवति पुरुष न नपुंस न च स्ती ।।
न आकारो न विकारो न हि जन मरणं न अस्ति पुण्यं न पापं ।
सर्वात्मम् तत्त्वं एक सहज समरसं सद्गुरूम् त्वं नमामि ।
गुरुरूप परब्रह्म को नमन। ॐ तत्सत् । ॐ ॐ ॐ ॥