घृणा व द्वेष क्यों? घृणा व द्वेष फैलाने वाले सारे मत और विचार…. असत्य और अन्धकार फैलाते हैं …..
क्या हमें दूसरों से घृणा सिर्फ इसीलिए करनी चाहिए कि दूसरे हमारे विचारों को नहीं मानते, या दूसरे हमारे मत, पंथ या मज़हब के नहीं है? यदि हमारे मन में किसी के भी प्रति ज़रा सी भी घृणा या द्वेष है तो हम स्वयं के लिए अंधकारमय लोकों की यानि घोर नर्क की सृष्टि कर रहे हैं।
जब भगवान सर्वत्र हैं और सब में हैं, तो किसी से भी घृणा क्यों? क्या हम भगवान से घृणा कर सकते हैं? गीता में भगवान कहते हैं
“यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।।
।। अर्थात जो सब में मुझ को देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये में अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।।
कितना बड़ा आश्वासन दिया है भगवान ने।
कुछ लोग तो दूसरों को पीड़ा पहुँचाने की ही प्रार्थना करते है महान तमिल संत वल्लुवर ने अपने साहित्य में घृणा के विरुद्ध बहुत अधिक लिखा है। गीता में भी भगवान कहते हैं…. उद्धरेदात्मनाऽ ऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।
|| इसका भावार्थ है कि हम स्वयं ही अपने शत्रु, मित्र और बन्धु हैं।
घृणा करने वाले द्वेषी और कूर लोगों की गति बहुत बुरी होती है। भगवान कहते हैं…..
तानहं द्विषतः कूरान्संसारेषु नराधमान्। क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ||
।। अर्थात् द्वेष पूर्वक क्रोध करने वाले नराधम की श्रेणी में आते हैं। (नर शब्द का अर्थ है जो विषयों में रमण न करे). नराधमान् वे नरों में अधम हैं। क्षिपामि अर्थात् फेंकता हूँ।
आसुरी योनी में जन्म लेकर क्या होता है? भगवान कहते हैं….
असुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि। मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ।।
।। अर्थात अविवेकीजन प्रत्येक जन्म में आसुरी योनि को पाते हुए जिनमें तमोगुणकी बहुलता है ऐसी योनियों में जन्मते हुए नीचे गिरते गिरते मुझ ईश्वरको न पाकर उन पूर्वप्राप्त योनियोंकी अपेक्षा और भी अधिक अधम गति को प्राप्त होते हैं।
अतः किसी से घृणा व द्वेष न करें और क्रूरता पर विजय पायें। भगवान से खूब प्रेम करें। ॐ तत्सत् । ॐ ॐ ॐ ।!