नारायण। मनुष्य आज अशान्त, विक्षुब्ध एवं तनावपूर्ण स्थिति में है। क्योंकि मनुष्य अपने बौद्धिक, तकनीकी और वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर आर्थिक समृद्धि और भौतिक सुख सुविधाओं से सम्पन्नता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने के लिए अग्रसर है तथापि धार्मिक और अध्यात्मिक दृष्टि से वह उतना ही विपन्न है। आधुनिक दूरसंचार एवं इलेक्ट्रोनिक तकनीकी साधनों के माध्यम से मनुष्य ने विश्व की दूरी को तो कम कर दिया है किन्तु मनुष्य मनुष्य के बीच हृदय की दूरी को बढ़ा दिया है। कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं जाति, वर्ण और भाषा के नाम पर हम एक-दूसरे से कटते चले जा रहे हैं। आज हम उतने ही आशंकित, आतंकित और अशान्त होते जा रहे हैं। आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की मूल प्रवृत्तियों और उनसे अन्य दोषों के कारण मानवता आज अभिशप्त होकर दोहरे संघर्षों से गुजर रही है- एक आन्तरिक और दूसरा बाह्य। आन्तरिक संघर्षों के कारण उसका मानस तनावपूर्ण तथा विक्षुब्ध है, तो बाह्य संघर्षों के कारण अशान्त और अव्यवस्थित। हमारे जीवन के उच्च मूल्यों और आदर्शों का अधःपन हो रहा है। आज मानवता निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। अतः आवश्यकता है मनुष्य को धर्म के सच्चे स्वरूप और अध्यात्मिकता की ओर मोड़ने का तथा हमारे जीवन के उच्च मूल्यों और आदशों को पुनस्र्स्थापित करने का।
धर्म का सच्चा स्वरूप – सामान्यतया धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे अनि का धर्म है जलाना और पानी का धर्म है शीतलता, तो यहाँ पर धर्म का अर्थ हुआ वस्तु का स्वाभाविक गुण। जब यह कहा जाता है कि दुःखी और पीड़ित जनों की सेवा करना मनुष्य का धर्म है अथवा माता पिता या गुरु की आज्ञा पालन करना पुत्र या शिष्य का धर्म है तो यहाँ पर धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य या दायित्व का पालन। इसी प्रकार जब यह कहा जाता है कि हिन्दू मेरा धर्म है, जैन या सिख या मुस्लिम या इसाई मेरा धर्म है तो यहाँ पर धर्म का तात्पर्य किसी दिव्य सत्ता, सिद्धान्त, साधना या पद्धति के प्रति हमारी श्रद्धा, आस्था और विश्वास को प्रकट करना। वस्तुतः तीसरे प्रकार के धर्म को ही हम धर्म समझते हैं और मनुष्य उन्हीं सम्बन्धित धर्मों में स्थापित दर्शन, सिद्धान्त पद्धति, प्रथा और कर्मकाण्डों का अनुसरण करता है और तदनुसार आचरण करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सभी धर्मों में दिव्य सत्ता (ईश्वर) के प्रति आस्था प्रकट की गई है और सभी धर्मों का अन्तिम लक्ष्य उस दिव्य सत्ता के प्रति पूर्ण समर्पण एवं उच्च नैतिक मूल्यों एवं आदशों की स्थापना करना है। किन्तु आज हम धर्म के वास्तविक अर्थ को भुला बैठे हैं और संकीर्ण विचारधारा तथा कर्मकाण्डों में उलझकर धर्म का स्वरूप ही बदल दिया है और उसे साम्प्रदायिकता का जामा पहना दिया है। साम्प्रदायिता में मनुष्य की निष्ठा उसी सम्प्रदाय तक सीमित रहती है। सम्प्रदाय वह रंगीन चश्मा होता है जो सबको अपने ही रंग में देखना चाहता है और जो भी उसे अपने से भिन्न रंग दिखाई देता है उसे वह गलत मान लेता है। जबकि धर्म खुली आँखों से उस सारभूत तत्त्व को देखता है, जो सभी के मूल में समान रूप से समाया हुआ है। इसीलिए व्यक्ति धार्मिक होकर अपने सम्प्रदाय में जब तक जीवन जीता है, तब तक कहीं विरोध उत्पन्न नहीं होता किन्तु जब वह धर्म के सारभूत तत्त्वों से विमुख होकर केवल अपने सम्प्रदाय को सत्य एवं सार्वभौमिक मान बैठता है तब यही सम्प्रदायवाद मनुष्य मनुष्य में वैमनस्य और घृणा के बीज बोता है। मानव जाति का दुर्भाग्य यही है कि आज धर्म के नाम पर जो कुछ चल रहा वह सब दिखावा है, आरोपित है और उसे ऊपर से ओढा गया है और इसीलिए धर्म के नाम पर आज अधर्म पनप रहा है। आज धर्म कितने ही थोथे और निष्प्राण कर्मकाण्डों में उलझकर रह गया है और हम के मूलभूत सार तत्व को भूला बैठे हैं। कुछ निहित स्वार्थी तत्त्व धर्म की आड़ में धर्म का आडम्बर रचकर जनता को भ्रमित कर रहे हैं। अतः आवश्यता इस बात की है कि धर्म के सच्चे स्वरूप को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया जाये और उन्हें जागरूक किया जाय।
नारायण। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक दृष्टिकोण से धर्म का अर्थ होता है- हमारी समाज व्यवस्था को संतुलित बनाये रखना। जो बातें हमारे सामाजिक जीवन में बाधा उपस्थित करती है, हमारे स्वार्थों को पोषण देकर हमारी सामाजिकता को खण्डित करती है, सामाजिक जीवन में अव्यवस्था और अशान्ति फैलाती है, वह अधर्म श्रेणी का कृत्य है। इसीलिए द्वेष, हिंसा,शोषण, स्वार्थपरता आदि को अधार्मिक कृत्य कहा गया है, जो समाज को खण्डित करती है और प्रेम, दया, सेवा, करूणा, परोपकार, क्षमा आदि को धार्मिक कृत्य कहा गया है क्योंकि यही वे नैतिक मूल्य है, जो समाज को का संरक्षण करती है और उसका पोषण करती है।
नारायण। धार्मिकता की कसौटी यह नहीं है कि हमने कितना पूजा पाठ किया, कितनी माला मन्त्र जपे, कितने उपवास किये अपितु यह है कि हमारा मन कितना निर्मल, शुद्ध या पवित्र हुआ है। हमारा मन कितना शान्त और अनुद्विग्न है। यदि पूजा पाठ, मन्त्रजपादि, उपवास के बाद भी मन अशान्त और उद्विग्न बना हुआ है तो सब तथाकथित धार्मिक कृत्य निरर्थक है, उसमें कोई सार्थकता नहीं है।
धर्म का सीधा सम्बन्ध हमारी जीवन दृष्टि और जीवनशैली से है। धार्मिक व्यक्ति की पहचान यही है कि वह किसी क्रिया को करने के पूर्व उसके परिणामों पर सम्यक दृष्टिकोण से विचार करें कि उसके इस क्रिया से अपने हितों और दूसरों के हितों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, उसका वह समान रूप से मूल्यांकन करें। विवेक के प्रकाश में विकसित ऐसी आत्मिक दृष्टि ही धर्म और धार्मिता का आधार है। इस प्रकार मनुष्य का धर्म और धार्मिकता इसी में है कि वह आत्मचेतन होकर विवेकशीलता के साथ संयमित जीवन जिये और उसकी चेतना सदैव और जागरूक रहे।