: कर्म विज्ञान का बोध: === (1) ===
नारायण। आपके जीवन का सम्बन्ध आपके घर परिवार, समाज और देश के साथ है, यह बात आप जानते हैं, लेकिन क्या आप यह जानते हैं कि आपके जीवन का नाता आपके कर्मों के साथ सबसे पहले है?
इन्सान के द्वारा सुबह से लेकर रात तक शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक क्रियाएँ होती रहती है। ये क्रियाएँ इन्सान और उसके आस – पास रहनेवाले लोगों व अन्य प्राणियों पर भी असर करती हैं, ये कर्म कहलाती हैं।
आपके कर्मों के अनुसार आपका वर्तमान बन चुका है। आज आप सुखी हैं या दुःखी, अमीर हैं या गरीब, बीमार हैं या स्वस्थ, सब अपने कर्मों की वजह से हैं। जीवन का दूसरा नाम है” कर्म करना” या अगल शब्दों में कहें तो इन्सान का पृथ्वी पर होना ही कर्म की घोषणा है। सिर्फ शरीर की मृत्यु ही पृथ्वी (पार्ट वन। पर अक्रिया का नाम है, यानी जब तक शरीर की मृत्यु नहीं हो जाती, तब तक हर क्षण, हर दिन किसी-न-किसी प्रकार की क्रिया हो रही है।
कर्म का अनोखा और आश्चर्यचकित कर देनेवाला अपना कानून और सिद्धान्त है।” सैद्धांतिक आधार पर ही कर्म की इमारत खड़ी है। किसी उद्देश्य, प्रेरण या विकार से प्रेरित होकर, स्वयं अथवा औरों के लाभ अथवा हानि के लिए जो क्रियाएँ शरीर एवं मन द्वारा की जाती है, उन्हें कर्म कहा जाता है।”
नारायण। जो क्रिया किसी खास उद्देश्य से की जाती है और जिसके पीछे घृणा, नफरत, क्रोध, डर, अहङ्कार, मोह जैसे विकारों की प्रेरणा होती है, उन्हें बुरा कर्म कहा गया है और उनका परिणाम भी बुरा आता है। कर्म किसी एक विकार की प्रेरणा से हो रहा है या अनेक विकारों की प्रेरणा से, यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि हर कर्म अच्छी भावना, सहज भाव अथवा प्रज्ञा से हो रहा है या नहीं।
कर्म यानी कुछ करना ही है, ऐसा नहीं है, कुछ न करने को भी कर्म कहा गया है। जैसे समय पर कार्य न करना भी कर्म है, क्योंकि ” कार्य न करने” का भी फल आता है। उदाहरण, परीक्षा मेः पढ़ाई न करना भी कर्म है, और उसका भी फल आता है। विद्यार्थी अपना गृहपाठ न करने का कर्म करता है तो उसे उसका शिक्षक दण्डित करता है। यह कर्म सिद्धान्त की एक महत्त्वपूर्ण छूटी हुई कड़ी है। इस बात का ज्ञान न होने की वजह से लोग कर्म के कानून का सम्पूर्ण लाभ नहीं उठा पाते।
आप प्रातःकाल उठते हैं या नहीं उठते हैं, जल्दी उठते हैं या देर से उठते हैं इन सभी सूरतों में आपको फल मिलता है । यदि आपने ” नहीं उठने” का कर्म किया तो आपके द्वारा निश्चित किए गए कार्य नहीं होंगे। देर से उठने” का कर्म हुआ तो उसका आपकी दिनचर्या पर असर होता है, आपके सभी कार्य देर से होते हैं।
कर्म को विस्तार से समझने के लिए पहले हमें कार्य और क्रिया को समझना होगा। कर्म को यदि छोटे छोटे हिस्सों में विभाजित किया जाए तो उन हिस्सों को हम क्रिया कहेंगे, जैसे उठना, बैठना, बात करना, बोलना, चलना, खाना पीना, सोना ये सभीक्रियाएँ एक समूचे कर्म के अन्तर्गत आती हैं। अर्थात् सभी छोटी छोटी क्रिया मिलकर एक कर्म का रूप लेती हैं। हमें आज तक जो कर्म लगता आया है, वह कर्म का केवल एक चौथाई (1/4) हिस्सा है।
सिर्फ बाहर से क्रिया का होते हुए दिखाई देना मात्र कर्म” नहीं है, बल्कि हमारे मन में उठनेवाले भाव, विचार, वाणी भी भी कर्म का रूप लेकर अपना प्रभाव दिखाते हैं। हमारा आना-जाना, पढ़ना-लिखना, कहना सुनना (श्रवण) गाना इत्यादि भी कर्म ही हैं।
हर कर्म” क्रिया हो सकती है, लेकिन हर” क्रिया कर्म नहीं होती। जब किसी क्रिया में अहङ्कार या कर्ता भाव नहीं होता, तब उस क्रिया में मानसिक एवं शारीरिक विकार अन्तर्भूत नहीं होते। शरीर से हर समय कोई-न-कोई क्रिया होती रहती है, उनमें से कुछ क्रियाएँ विकार रहित होती हैं। जैसे साँस लेना व छोड़ना, हाथ पाँव उठाना या हिलाना, आँखें खोलना व बन्द करना, सिर खुजलाना इत्यादि। ऐसी क्रियाओं को अनेच्छिक क्रियाएँ कहा गया है। ये स्वतः होनेवाली क्रियाएँ हैं।
” क्रिया” शब्द” क्रियाकर्म” में भी इस्तेमाल होता है। छोटी छोटी क्रियाएँ किसी बड़े कार्य को सम्पन्न करने के लिए होती हैं। शरीर के साथ होनेवाले भावों में भी” क्रिया” शब्द का इस्तेमाल होता है। यदि कोई हँसता हो या आँसू बहाता हो तो इन भावनाओं को भी क्रिया कहा गया है।
नारायण ! कर्म” कार्य” कैसे बनते हैं? हमारे द्वारा की गई छोटी छोटी क्रियाएँ कर्म का रूप लेती हैं। फिर वे कर्म, कार्य में तब्दील होते हैं, उन कर्मों से कार्य सिद्ध होता है और उसके बाद उसका फल प्राप्त होता है। इस तरह कर्म – श्रृंखला तैयार होती है। हर क्रिया के पीछे हमारे अन्दर जो भाव होते हैं, वे ज्यादा महत्त्व रखते हैं। कर्म के पीछे कौन सा भाव है उसका फल आता है । भाव जब विकाररहित होते हैं तो फल भी सुखदाई होता है।
भगवान् श्री वासुदेव कृष्ण कहते हैं-
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो हाकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धोदकर्मणः ॥
हे अर्जुन। तू शास्त्रविधि से नियत किए हुए कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर – निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।